Sunday, March 13, 2011

मै अकेला चल रहा हूँ

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ,
बस प्राण साथ है अब,
पथ पर अकेला बढ़ रहा हूँ।
है काफिला कितना बड़ा,
चल रहा है जैसे धरा,
मृतप्राय है सब अस्थिर से,
राह में अवरोध है जैसे खड़ा।

ना है फिक्र किसी बात की,
बेफिक्र सा मै चल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

हर बार मेरी यात्रा,
फिर से ठहराव पाती है,
जब जन्म लेकर मेरी आत्मा,
विरामता दिखाती है।

नये रिश्ते,नातें जुड़ते है,
नये माँ-बाप पाता हूँ,
तब फिर से मेरी आत्मा,
नये स्वरुप को निभाती है।

जीवन-मरण के जाल में,
मै हमेशा छल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

हर बार मै खो जाता हूँ,
बस आज को सच पाता हूँ,
माँ-बाप,घर,भाई-बहन में,
नया चमन बसाता हूँ।

पर अंत मेरा जब होता है,
फिर से मै जब सो जाता हूँ,
सब कुछ मै भूल जाता हूँ,
उस अनंत जलद में,
खुद को पाता हूँ।

हर बार विरह की तड़प से,
मै हमेशा गल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

सागर की गोद में पड़ा मै,
जब निंद से जाग जाता हूँ,
कल को ही अपना सच समझ,
माँ-बाप को पुकारता हूँ।

माँ मै अभी तो छोटा हूँ,
सागर तो है काफी बड़ा,
मुझे तैरना भी आता नहीं,
तन्हा मुझे क्यों है छोड़ा।
पापा मुझे बचा लो ना,
कही डुब ना जाउँ यहाँ।

इस बार फिर से डुब कर,
नई गोद में मै पल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

छोटी सी अपनी आँखों से,
अनजानों में अजनबी साँसों से,
फिर से मै यूँ घिर जाता हूँ,
नई गोद में खुद को पाता हूँ।

ममता वही है,मै वही हूँ,
बस लोग और चेहरे है जुदा,
सब है नये तो क्या हुआ,
मेरे साथ है मेरे साई खुदा।

विश्वास दिल में जगा कर,
नई रोशनी में चल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

शायद वही एक सत्य है,
हर पल जो मुझको दृश्य है,
हर जन्म की सारी भावना,
मेरा वजूद और ममत्व है।

खुशबु है वो हर फूल का,
रोशनी है वो हर नूर का,
मिथ्या है माँ-बाप,भाई,
अपना है तो बस साई।
साई तरु की छावँ में,
हर जन्म में मै फल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

सागर भी अब हो गया सीमित,
उसका भी हो गया है अंत,
ना छोड़ है,ना मोड़ है,
पा गया हूँ मै अब वैसा पंथ।

मँजिल पे आकर अब यहाँ,
मै रोशनी की गोद में,
मुरझा के फिर से खिल गया,
मेरा वजूद मानों हिल गया।

जीवन की ज्योति अब मेरी,
उस लाखों सूर्य से तेज में,
है खो गया,अब मिल गया,
उन साई चरणों के वेग में।

कब से अकेला चल रहा था,
अब साई चरणों में पल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

13 comments:

mridula pradhan said...

tarah-tarah ke bhawon ko lekar rachit yah kavita bahut sundar bani hai.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत रचना ...सच है सारा संसार मिथ्या है ...

प्रवीण पाण्डेय said...

मन में उत्साह के घुमड़ते बादलों को वर्षा बन बरसाती कविता।

Dr Varsha Singh said...

अथाह,अनंत से जलद में, मै अकेला चल रहा हूँ, बस प्राण साथ है अब, पथ पर अकेला बढ़ रहा हूँ।
है काफिला कितना बड़ा, चल रहा है जैसे धरा, मृतप्राय है सब अस्थिर से, राह में अवरोध है जैसे खड़ा।

गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति ...बधाई.

kshama said...

Athaah sundar!

राज भाटिय़ा said...

वाह, बहुत ही गहरी बात कह दी आप ने इस रचना मे, धन्यवाद

रचना दीक्षित said...

बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति. गहरे डूबने से ही मोती मिलते है. बधाई.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ,
बस प्राण साथ है अब,
पथ पर अकेला बढ़ रहा हूँ।......

बहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी रचना....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.uchcharan.com/

वाणी गीत said...

चल रहा है जैसे धरा ...अखर रहा है ,
यदि धरती के सम्बन्ध में है तो धरा स्त्रीलिंग है ..
साईं को समर्पित कर दिया स्वयं को हर राह उत्साह से भरी ही होगी ...!

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

विचारों के अरोहों-अवरोहों के बीच भावों की अभिव्यक्ति प्रभावित करती है|

ज्योति सिंह said...

ati uttam ,man ko bha gayi .

vijay kumar sappatti said...

this is one of your bests.. kudos !!!