मै जा रहा हूँ अब वहाँ,
कब से था मुझको जिसका चाह।
मेरे मन के हर एक पोर से,
चंचल हवा के शोर से,
न जाने कैसा उद्गार हुआ,
मानो मै बैतरनी पार हुआ।
मै जाने किसमें खो गया,
उससा ही अब मै हो गया,
खुदा की रहमत का शुक्रगुजार हो गया।
यही थी मेरी अंतिम घड़ी,
जो मुझको ऐसे ही नहीं मिली।
मैने पा लिया था अपना परावँ,
अब बदल गया था मेरा हर एक मनोभाव।
खुद में ही अब मै मस्त सा,
सब अपनों से हुआ त्रस्त सा,
उस अनंत पथ पर चल पड़ा,
जैसे हूँ मै जिद पे अड़ा।
यादों की घड़ियाँ साथ थी,
मुझे जाने किसकी आश थी।
मेरे मन में कैसा द्वंद था,
दुष्टों में जैसे सत्संग सा,
निरुपम था वो,अविचल था वो,
निस्काम सा,निरुद्देश्य सा।
मेरे राह में वो था पड़ा,
मानो मेरे लिए ही वो हो खड़ा।
कितना निराला रुप था,
ठंडक में जैसे धूप सा,
मै उसका ही स्वरुप था,
क्या वो मेरा कोई भूत था।
जब राह में मै चला था,
तुझसे भी मै कभी मिला था।
उस शून्य के पथमार्ग पे,
कितने बद्किस्मत थे खड़े,
मै राही था वे सूल से,
मेरे राह में पत्थर मिले।
मुझको वे यूँ चूभ जाते थे,
मेरे दर्द से अतिसुख पाते थे।
इस्लाम के इंतकाम सा,
खुदा के किसी इम्तिहान सा,
मै बढ़ रहा था राह पे,
मुझको न थी अब खुद से नेह।
बस आँखों में मँजिल के निशा,
बयाँ करते थे मेरा सुखद आशियाँ।
वो राह कितना दुखभरा,
मेरी साँसों का दुश्मन बड़ा,
हर पल था मुझको जिसका चाह,
मैने पा लिया था वो मुकाम।
मेरी आत्मा पथ राही थी,
जीवन मेरा था एक परावँ,
सब रिश्ते नाते साथी थे,
जिनसे मिला मेरे मन को छावँ।
कितने युगों का था सफर,
मेरे सभी जन्मों का भँवर।
मेरी आत्मा मेरी पहचान थी,
शरीर तो वस्त्रों सी थी पड़ी।
हर बार ये मेरी आत्मा,
दे जाती थी ये भावना,
तु कौन है,तु कौन है?
इस प्रश्न पे क्यों मौन है।
तेरा न कोई अस्तित्व है,
न है किसी से वास्ता,
तु राही है बस चलता जा,
अपने वजूद से तु ना कतरा।
तेरे न कोई साथ है,
फिर क्यों तुझे विश्वास है,
माँ बाप मेरे पास है,
घर बार मेरा साथ है।
सब है मिथ्या वो जानता,
जिसने रचा है ये व्यथा,
उसने हमे जो दी है साँस,
फिर भी मेरे मन,तु क्यों है निराश।
जीवन का ये जो सत्य है,
वो ही अब मेरे समक्ष है।
मेरे मार्ग में,मेरे राह में,
सुख दुख के खिलौनों के मेले,
लगे हो जैसे हर घड़ी।
क्या रिश्ता है,क्या नाता है,
ये सब तो पल भर में मिट जाता है,
हर जन्म में नये रुप में,
ये आता है और जाता है।
हमको ये सबक दे जाता है,
तु प्रेम का,सौहाद्र का,
हर घड़ी के हर क्षण का,
ऊपयोग कर,यूँ ना बिता,
इस मनुष्य शरीर पर तु कर गुमाँ।
फिर भी ना तु ये भूल रे,
तु राही है बस चलता जा,
अपने वजूद से तु ना कतरा,
अपने आज से तु ना घबरा।
यही तेरा अब है परावँ,
जिसमे मिलेगा तेरे मन को छावँ।
मै पा गया अब वो जहाँ,
कब से था मुझको जिसका चाह.........।
मेरी आवाज में विडियो "जीवन पथ की राह" on YOUTUBE
11 comments:
यही तो आत्मावलोकन है….॥…बेहतरीन प्रस्तुति।
सत्यम जी,
पहली बार आपके ब्लॉग पर आने का सौभाग्य मिला,अच्छा लगा !
आपकी कविता पाठक को बड़ी दूर तक ले जाती है ,कविता के भाव सुन्दर और प्रभावपूर्ण हैं !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
अपने अन्तरतम की यात्रा से घुमाकर ले आये हम सबको। बड़ी ही गहन, स्पष्ट और मोहक।
... bahut sundar ... behatreen !!
सत्यम जी,
नमस्कार !
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
सत्यम जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति............. गहरे और प्रभावी भाव है.
।
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bahut sunder
gahre bhaw deti rachna
इस बार मेरे ब्लॉग पर
" मैं "
सच वैतरणी पार हो गई ........बहुत अच्छी रचना !
मेरे ब्लॉग पर बहुत दिनों से आना नहीं हुआ ....
सुंदर कविता ..... हैप्पी न्यू ईयर.....
आप सबो को धन्यवाद.....पर मुझे लगता है ये कविता ज्यादा लोगो को समझ नही आया.....इस कविता में मैने जो गहन विश्लेषण किया है वो बहुत ही अर्थपूर्ण है...मैने बहुत उम्मीद रखा था...पर बहुत लोगों के कामेंट की प्रतीक्षा है...
सुन्दर और गहरे भावों से सजी
सारगर्भित रचना
आना सफल हुआ
आभार
शुभ कामनायें
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