नमस्कार मित्रों। अपनी व्यस्ततम रोजमर्रा की जिंदगी में हम इतने दूर निकल गए है कि वर्षों बाद आज इन सुनहरी गलियों में वापस लौटे है । अब फिर से नई शुरुआत करना चाहता हूँ। आपसब की क्या राय है ?
*काव्य-कल्पना*
मै कवि कहलाने का अधिकारी हूँ या नहीं, मुझे नहीं पता..... पर कविता खुद ही छलक जाती है, तो क्या करूँ....
Tuesday, June 27, 2023
Tuesday, May 24, 2016
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत....
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत,
कहो तुम हो कहाँ ओ व्याकुल मन के मीत।
झंकृत है ये तन,मन और जीवन,
हो रहा है ह्रदय नर्तन,
थिरक कर कर रही कोशिश,
झूमने की आज दर्पण।
होंठों पर सुरमयी शब्द के,
अक्षरों की होगी जीत।
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत।
बहकने लगे है सुधियों के नियंत्रक,
तन और मन दोनों गये है थक,
बस नैन एकटक निहारे जा रही है,
ह्रदय स्पंदन हो रही है धक,धक।
चलचित्र सा हो रहा है दृश्य वो पल,
जो सुहाने दिन गये कल बीत।
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत।
एकाकीपन ने लाखों में कर दिया अकेला,
ना जाने छटेगी कब ये विरह वेला,
तुमने है जब से फेर ली अपनी निगाहें,
सूना है ये मन और जीवन का हर मेला।
थोड़ी हँसी फिर आंसुओं की बरसात,
शायद यही है मोहब्बत की रीत।
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत।
स्वप्न वह रात की,सौगात की,
तुम बिन तुम्हारे साथ की,
बिन सेहरे और जोड़े के सजे,
दुल्हा,दुल्हन के बारात की।
दिल से ही हुयी सगाई दिल की,
कैसी है ये अपनी प्रीत।
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत।
मिला ना तन से अपना तन,
बेचारा मन गया तेरा बन,
विह्वलता,व्याकुलता और अकुलाहट,
में सनी है रात,दिन हर क्षण।
विवश है ये कहानी प्यार की,
हर मौन है संगीत।
तुम्हारी धुन पर नाचे आज मेरे गीत।
Monday, July 6, 2015
तुम्हारे और मेरे बीच
तुम्हारे और मेरे बीच
है एक पूरी रात
अधूरी नींद,आधे ख्वाब
और गुजरी यादों का
एक लम्बा बेवजह का काफिला
चाँद की काली दागों पर बिछी हुई है
अतीत की एक धूलभरी चादर
और बातों का नरम सा तकिया
जिसपे सर रख कर
सो जाती है हर रात
तुम्हारे और मेरे बीच
की सैकड़ों मीलों की दुरियां
तुम्हारे और मेरे बीच
है लाखों,करोड़ों शब्द
उन शब्दों में से एक है
तुम्हारा नाम
सबसे परिचित व अपनापन भरा
तुम्हारे और मेरे बीच
है कई खाईयां,पहाड़ और नदी
जिनसे होकर गुजरती है
तुम्हारी भावनायें और मेरे विचार
तुम्हारे और मेरे बीच
है एक अलौकिक सम्मोहन
जो समेटता है
ब्रह्मांड के हर आकर्षण को
मुझसे तुम तक
तुम्हारे और मेरे बीच
है एक लम्बा रास्ता तन्हाईयों का
जिससे होकर पहुँचती है
तुम्हारी याद
मुझ तक
है एक पूरी रात
अधूरी नींद,आधे ख्वाब
और गुजरी यादों का
एक लम्बा बेवजह का काफिला
चाँद की काली दागों पर बिछी हुई है
अतीत की एक धूलभरी चादर
और बातों का नरम सा तकिया
जिसपे सर रख कर
सो जाती है हर रात
तुम्हारे और मेरे बीच
की सैकड़ों मीलों की दुरियां
तुम्हारे और मेरे बीच
है लाखों,करोड़ों शब्द
उन शब्दों में से एक है
तुम्हारा नाम
सबसे परिचित व अपनापन भरा
तुम्हारे और मेरे बीच
है कई खाईयां,पहाड़ और नदी
जिनसे होकर गुजरती है
तुम्हारी भावनायें और मेरे विचार
तुम्हारे और मेरे बीच
है एक अलौकिक सम्मोहन
जो समेटता है
ब्रह्मांड के हर आकर्षण को
मुझसे तुम तक
तुम्हारे और मेरे बीच
है एक लम्बा रास्ता तन्हाईयों का
जिससे होकर पहुँचती है
तुम्हारी याद
मुझ तक
Monday, May 21, 2012
एहसास तुम्हारे होने का
तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
दिल के खाली उस कोने का,
वो दर्द तुम्हारे खोने का।
गुमशुम हूँ,चुप हूँ,खोया हूँ,
एकाकीपन में रोया हूँ,
कभी शाम ढ़ले फिर आओगी,
पलकों पे सपने बोया हूँ।
अब बीत गयी है रात,
नहीं तुम पास,
पहर ये रोने का।
तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
सूनापन मन में छाया है,
पतझड़ का रुत फिर आया है,
खाली,खाली तुम बिन आँगन,
आँसू ने साथ निभाया है।
कुछ बूँद गिरे,
बन याद तेरे,
ये वक्त है कल में खोने का।
तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
मन वीणा के हर तार से,
झंकृत होती तेरी आहट,
हर मौन मुखरित हो जाता है,
लहरे जो बुलाती सागर तट।
कुछ कदम बढ़े,
कुछ ठहर गये,
टूटे सपनों को बोने का।
तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
नभ जो है समाया आँखों में,
तारों से सपने दिखते है,
कोरे पन्नों पे मन व्याकुल,
आकुल अंतर का लिखते है।
तेरी राह तके,
सदियों जागे,
कुछ देर तो हक है सोने का।
तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
दिल के खाली उस कोने का,
वो दर्द तुम्हारे खोने का।
Sunday, April 22, 2012
काव्य संग्रह "मेरे बाद" का लोकार्पण समारोह
आप सभी श्रेष्ठजनों के आशीर्वाद से मेरे प्रथम काव्य संग्रह "मेरे बाद" का लोकार्पण कार्यक्रम 15.04.2012 को समपन्न हुआ।इस अवसर पर माननीय सदर एस.डी.ओ और वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि उपस्थित थे साथ ही शहर के प्रतिष्ठित और गणमान्य व्यक्तियों का जमावड़ा लगा था।विभिन्न अखबारों से आये पत्रकारगणों ने मेरा उत्साहवर्धन किया।
(मंच को संचालित करते प्रो. अरुण कुमार जी)
विमोचनकर्ताओं में सदर एस.डी.ओ राधाकान्त जी,साहित्य शिरोमणी,चम्पारण के गौरव वरिष्ठ साहित्यकार श्री लव शर्मा प्रशांत जी,मुन्शी सिंह कालेज के हिन्दी विभाग के प्रमुख प्रो. डा. अरुण कुमार जी,इतिहास मर्मज्ञ एवं कवि प्रो. डा. राजेश रंजन वर्मा जी,बिहार एवं चम्पारण महोत्सव के प्रणेता एवं रंगकर्मी श्री प्रसाद रत्नेश्वर जिन्हें चीन से प्रमुख विषय पर शोध करने हेतु सम्मानीत किया गया...प्रमुख थे।
(विमोचन करते सदर एस.डी.ओ और वरिष्ठ साहित्यकारगण)
इन सबों ने अपने तरीके से काव्य संग्रह की समीक्षा प्रस्तुत की और इसमें अध्यात्म एवं प्रेम की कविताओं का अद्भूत संयोग बताया।इतनी कम उम्र में ऐसी कृति करने हेतु मुझे शूभकामनाएं दी और विलक्षण कार्य बताया.....सदर एस.डी.ओ ने इस बड़ी उपलब्धि हेतु मुझे बधाईयां दी।वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने मुझे आशीर्वाद दिया और पापा ने सबके सामने मुझे गले से लगा लिया......माँ एवं मेरे छोटे भाई ने भी मेरी खुशी पर मेरा सहयोग दिया।
(पुस्तक की अध्यात्मिक विवेचना करते प्रो. डा. राजेश रंजन जी)
कार्यक्रम के अगले दिन यानि 16.04.2012 को विभिन्न अखबारों में लोकार्पण समारोह की विस्तृत जानकारी देखने को मिली...जिनमें कुछ प्रमुख अखबारों की कतरन निचे है।
(दैनिक हिन्दूस्तान में कार्यक्रम की जानकारी)
(राष्ट्रिय सहारा में कार्यक्रम की जानकारी)
दैनिक जागरण में प्रकाशित जानकारी का लिंक
साथ ही विभिन्न अन्य अखबारों जैसे "सन्मार्ग,आज और प्रभात खबर" में भी कार्यक्रम की जानकारी प्रकाशित हुयी।
पुस्तक विवरण
काव्य संग्रह
कविता:53
कुल पृष्ठ 160
मूल्य रु:-150
अपने पहले काव्य संग्रह "मेरे बाद" में मैने अपनी 56 काव्य रचनाओं को संग्रहीत किया है।हर कविता भिन्न भिन्न उपादानों से सुसज्जित है और अलग रंग और रस में रंगी हुई है।प्रेम,अध्यात्म,भक्ति,भाव और थोड़ा बहुत विरह भी परिलक्षीत होगा मेरी इन कविताओं में।कहते है जब कोई कलाकार अपनी सृजनात्मकता में अपने ह्रदय की भावनाओं का सम्मिश्रण करता है तब उसकी वह कृति जीवंत हो जाती है।अपने पिता की भावनाओं को समर्पित मेरी कविता "पिता का दुख" इसी सोच का एक सटीक उदाहरण है।आँखों से आँसूओं की सरिता प्रवाहीत होती रही और मै अपनी लेखनी से इक पिता के दुख को पन्नों में उतारता गया।मुझे पूर्णविश्वास है मेरी यह भाव सरिता आपकी भावनाओं को भी अवश्य बहा ले जायेगी।
काव्य संग्रह की अंतिम कविता "प्रलय पुरुष" मेरी भावी कल्पना का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।मेरा यह पात्र "प्रलय पुरुष" "मेरे बाद" की उस सोच का नतीजा है जहाँ कलियुग के अंतिम पहर की गणना शुरु हो चुकी है।मैने इस कविता को कई खण्डों में लिखा है और साथ ही विभिन्न नये पात्रों और प्रतिमानों को गढ़ा है,जिसका पूर्ण स्वरुप शायद आपको मेरी भविष्य के किसी संग्रह में मिले।सृजन की महता तभी है जब प्रलय का आवेग है।हर बार प्रलय के बाद एक नयी सृष्टि का उदय होता है और जो सृष्टि के कल्याणार्थ द्वेष,पाप,ईर्ष्या जैसी आसुरिक भावनाओं से कुंठित होकर प्रलय का तांडव रचता है वही प्रलय पुरुष कहलाता है।यह रचना मेरे लिये कुछ विशेष है।आशा करता हूँ कि इसकी लय और ताल में आपको भी एक क्षण प्रलय राग का धुन सुनायी देगा,वो कंपन महसूस होगी जो सृष्टि के संहार के बाद एक नये धरातल की रचना करेगी।
इस काव्य संग्रह को प्राप्त करने के लिये आज ही हमे मेल से अपना पोस्टल पता भेजे at satyamshivam95@gmail.com
ISBN
978-81-921666-9-8
कुछ श्रेष्ठ एवं गणमान्य ब्लागरों द्वारा इस पुस्तक की समीक्षा
दर्शन कौर धनोए आंटी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
वंदना गुप्ता जी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
"मेरे बाद"......एक शुरुआत
संगीता स्वरुप आंटी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
पुस्तक परिचय-27 : मेरे बाद
रंजू भाटिया जी के द्वारा मेरे काव्य संग्रह "मेरे बाद" की मनमोहक एवं तर्कसंगत विशलेष्णात्मक समीक्षा
at
मेरे बाद ...सत्यम शिवम् ...पुस्तक समीक्षा ..
सरस दरबारी जी के द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
समीक्षा 'मेरे बाद'.....सरस दरबारी जी
संगीता स्वरुप आंटी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
पुस्तक परिचय-27 : मेरे बाद
रंजू भाटिया जी के द्वारा मेरे काव्य संग्रह "मेरे बाद" की मनमोहक एवं तर्कसंगत विशलेष्णात्मक समीक्षा
at
मेरे बाद ...सत्यम शिवम् ...पुस्तक समीक्षा ..
सरस दरबारी जी के द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
समीक्षा 'मेरे बाद'.....सरस दरबारी जी
शास्त्री जी के ब्लाग पर
"पुस्तक समीक्षा-मेरे बाद" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
"मेरे बाद" का फेसबुक पेज
at
आपसबों के आशीर्वाद एवं स्नेह का आकांक्षी हूँ...स्वागतम्।
Friday, February 24, 2012
एक पौधा तुलसी का
मेरे आंगन में मुरझाते हुये तुलसी पौधे को समर्पित......
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
सुख के क्षण में प्राण वायु दान बन,
क्लेश में संताप से मरता रहा है।
अपने जड़ में वह छुपाये,
शांति और स्नेह धारा,
तीव्रतम वायु ने छीना,
तरु से जब पत्र सारा।
करुण पीड़ा भी सहा वो,
वृक्ष वट का बन बड़ा सा,
दे रहा बस नया जीवन,
हरित देव फिर है हारा।
मृत्यु की सीमा पे भी,
वह दौड़,दौड़,
जिंदगी की खातिर लड़ता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
मँजरी से लद गया था तन सुकोमल,
देव को होता था अर्पित जब तुलसी दल,
वरण जिसका खुद किये थे ईश विष्णु,
तरु वह खोता रहा है निश दिन स्व बल।
कर रहा था खुद में संचित,
पुण्य का प्रकाश हर क्षण,
सू्र्य का अवतार वो ही,
तम से अब डरता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
तितलियों का क्रीड़ा साथी,
मेरे घर का बुजुर्ग था वो,
छोटे बच्चों का खिलौना,
बूढ़ों का हमदर्द था वो।
उसकी रंगत में है दिखती,
मेरी माँ की बस दुआयें,
अर्घ्य स्नेह का,नेह का,
हर चोट का मेरे उपाय।
जाने से उसके गया है,
वैद्य घर का एक पुराना,
पल में जो हर दर्द मेरा,
हर घड़ी हरता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
Sunday, February 19, 2012
मेरे दुख तूने साथ निभाया
मेरे दुख तूने साथ निभाया।
तब जब कोई न था अपना,
टूट चुका था हर एक सपना।
घर था पर न थी छत ऊपर,
बारिश से भींगा तन तर,तर।
अन्न नहीं थे,वस्त्र नहीं थे,
आँसू के दो बूँद सही थे।
खारेपन में अपनत्व मिलाकर,
तू गागर में सागर भर लाया।
मेरे दुख तूने साथ निभाया।
साँझ ढ़ली जब बैठ अकेला,
जीवन की अंतिम थी बेला।
बीते कल पर हर्ष मनाता,
सुख जब द्वार न मेरे आता।
कष्ट में बन कर मेरी श्रद्धा,
भक्ति का मार्ग दिखाया।
मेरे दुख तूने साथ निभाया।
सब ने मेरा साथ छोड़ा,
श्वांस बचा था थोड़ा,थोड़ा,
नयन बंद थे,भय था भीतर,
ह्रदय पृष्ठ रह गया था कोरा।
शब्द बना तू हर एकांत का,
छन्द बनी अंतस की पीड़ा।
पन्नों में कह गया तू वो सब,
जो मै कभी ना कह पाया।
मेरे दुख तूने साथ निभाया।
सुख था तो मै जग को जाना,
राग,द्वेष का ताना,बाना,
नहीं रहेगा कल जो क्षण भर,
व्यर्थ है उसको पाना।
छुटे साथी,रिश्ते टूटे,
सुख का साथ जो छुटा।
ज्ञात हुआ तब खुद का मुझको,
तूने मुझे,मुझसे ही मिलाया।
मेरे दुख तूने साथ निभाया।
Tuesday, January 31, 2012
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
तीमिर है काली,भयानक पास आती,
नयनों की ज्योति है जैसे दूर जाती।
थक गया है प्राण और निर्माण सारा,
बोझ से दब सी गयी है सब की छाती।
वह जो मुस्कुरा रहा है देख मुझको,
आँसू भी है मोती जैसे दिल के तह की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
मैने कितने किस्से लोगों से सुने थे,
जिंदगी का नाम जीना ही नहीं है।
मर गया गर कोई खुद के वास्ते तो,
मरना भी बस विष का पीना ही नहीं है।
जिंदगी में देखे है कई मौत मैने,
उसके तन से मेरे मन के रमणिक सुलह की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
वह किरण बन कर मेरे अँधियारी गलियों,
में यहाँ से रोज वहाँ तक आता जाता।
उसके पद्चापों की सुमधुर ध्वनि,
क्या पता क्यों दिल को मेरे आज भाता।
कई घड़ी ऐसा हुआ है,बिन कुछ सोचे,
दूर तक मै उसके पिछे पीछे जाऊँ।
पर अचानक चौंक जाये चौंधियाती आँखें,
चाह कर भी लक्ष्य से जब मिल ना पाऊँ।
काँटों पे चलता रहा हूँ जिंदगी भर,
कोई तो इक राह मिले कल्पित सुमन की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
गूँजती है दस दिशायें,हर तरु यह पूछता है,
मन अनुतरित है तो क्यों है,
क्यूँ नहीं कुछ सुझता है।
आते है मदमास,सावन,
फिर बसंत,फिर पतझड़ आता।
जख्मों पर कुछ नमक का कण,
देह को मेरे जलाता।
हार जाती मेरी चाहत और मेरी अभिलाषाएं,
जीत होगी नींद पर कब?
मेरे भावी,पलछिन सुपन की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
Friday, January 20, 2012
हे देव.....
हे देव! तुम्हारी बाँसुरी में आखिर कैसा जादू है,
मै हरदम सोई रहती हूँ,नशे में खोई रहती हूँ।
जब भी तुम मेरे मन के उपवन में हौले से आते हो,
और अपनी नटखट अदाओं से मुझे दिवाना बनाते हो।
ऐसा लगता है कि मै कोई नहीं हूँ,
मै तो उस यमुना का वो किनारा हूँ,
जहाँ तुम अक्सर बैठकर बाँसुरी बजाते हो।
कई बार पूछना चाही तुमसे,
कई बार देखना चाही तुमको,
पर हर बार मेरी योजनायें विफल हो गयी तुम्हारे सामने।
शायद मै समझ ना सकी,
खुद को बिना दर्पण कैसे देख पाउँगी मै।
जमाना भले ही तुम्हें भगवान कहता हो,
पर मै जानती हूँ तुम वही माखनचोर हो ना,
जो गोकुल में हर ग्वाले के यहाँ से,
माखन चुरा चुरा के खाते हो।
लोग मानते हो तुम्हें महाभारत के समर का,
एकमात्र नायक....
क्योंकि सबकुछ तुम्हारी ही माया का स्वरुप था।
पर मै जानती हूँ तुम वही रणछोड़ हो,
जो युद्ध से भागता भागता छुप जाता है।
मै जानती हूँ देव! तुम मेरे नहीं हो,
तुम तो उस राधा के हो ना,
जिसके साथ तुम अक्सर रास लीला किया करते थे।
जब तुम उस मीरा के नहीं हो सकते,
जो तुम्हारी खातिर विष भी पी लेती है,
तो भला मेरे कैसे हो सकते हो।
मै तो हरदम बस तुम्हारी मायानगरी में व्यस्त रहती हूँ,
पर हे मायावी! मै जानती हूँ कि,
बस तुम ही हो यहाँ और तुम ही हो वहाँ,
जो मुझे जानते हो.......
कि मै अब भी तुमको कितना चाहती हूँ।
हे देव! तुम मेरी आँखों में झाँकना चाहते हो ना,
तो देखो मेरी आँखों में यमुना समायी है।
तुम ही कहो ना कैसे मिलाऊँ नजर,
इस यमुना में तो आज बाढ़ आयी है।
मै जानती हूँ तुम बाल कौतुहल करते करते,
यमुना में भी चले आते हो,
कभी आओ ना मेरी इस यमुना में मेरे माधव!
कोई नहीं है इस यमुना के किनारे बंशी बजाने वाला,
हे बंशीधर! समा जाओ ना मेरी नजरों में,
कि हर ओर बस तुम ही दिखो,बस तुम ही.............।
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सत्यम शिवम कविता
Tuesday, December 27, 2011
दर्द की नायिका
तुम दर्द की नायिका,
और मै नायक उस अभिनय का,
जहाँ बस दर्द के ही रास्ते पे,
चलता रहा हूँ मै।
छुपा लिया है मैने,
दर्द की इक पुरानी,
नदी दिल में कही।
जो कभी कभी बूंदे बनकर,
बहती रहती है मेरी इन आँखों से।
कभी हर मंजर दिखा देती है,
सामने उस रात को,
जिनमें तुम्हारे साथ था मै।
मेरा यह अभिनय शायद,
उम्र भर का है,
और दर्द से यह वास्ता भी,
पुराना है।
तभी तो निभाता रहा हूँ,
पूरी ईमानदारी से अपना पक्ष हरदम,
ताकि अपने पात्र को सजीव कर सकूँ।
अचानक कोई तूफान सा आता है,
मेरा घर,मेरा रंगमंच,
मेरा अस्तित्व ही मिट जाता है।
मेरी दर्द की नायिका अब सामने,
नहीं है मेरे,
पर यह दर्द मुझे एहसास कराता है,
तुम्हारे इस अभिनय में कभी होने का।
तुम्हें ढ़ूँढ़ता रहता है यह दर्द का नायक,
अपनी दर्द की नदी में,
भावनाओं की एक नाव पर बैठा।
बस चलता जाता है,
चलता जाता है।
अभी भी शायद इक लगन है,
दिल में कही,
कि डूबता वो हमसफर,
मिल जाये फिर।
दिल में कही,
कि डूबता वो हमसफर,
मिल जाये फिर।
हवायें बहती है,
साँसे चलती है,
और हौले हौले मन में इक,
भय समा जाता है।
क्या अब इस अभिनय में यह,
दर्द का नायक अपनी,
नायिका के बिना ही रहेगा।
समय बीतता है,
हर जख्म भरता जाता है,
और आदत हो जाती है उसे,
तुम्हारे बिन रहने की।
तुम्हारी स्मृतियाँ,तुम्हारा स्पर्श,
सब कुछ धीरे धीरे,
तुम्हारे साथ ही बह सा जाता है,
मेरी दर्द की नदी में।
कभी फिर तूफान आता है,
फिर हवायें तेज चलने लगती है,
और तुम्हारी आहट मेरे चित्रपट पर,
गूँजने सी लगती है।
दौड़ता हूँ कुछ दूर तक,
पीछे पीछे तुम्हारे,
पर अचानक ठहर जाता हूँ मै,
क्योंकि वहाँ आधार नहीं है,
एक गहरी खायी सी है अब,
मेरे और तुम्हारे बीच।
मै अब भी झूठे अभिनय में,
जी रहा हूँ,
अपने दर्द के साथ,
और तुम दर्द की नायिका,
दर्द से कोसों दूर जा चुकी हो।
फिर भी दर्द का रिश्ता मेरा,
और तुम्हारा खींच लाता है,
तुम्हें हमेशा,
पुरानी यादों के सहारे।
अक्सर अपने दर्द के नायक के पास।
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सत्यम शिवम कविता
Thursday, December 22, 2011
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
रुक न जाये श्वास वेला,
मीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
स्नेह का आकाश अब भी,
नेह का दो बूँद माँगे,
अश्रु का प्रवाह बह-बह,
नैनों की फिर बाँध लाँघे।
सिसकियाँ देती है मेरे,
सर्द रातों की गवाही,
तेरे पीछे-पीछे चलता,
बन गया मै प्रेम राही।
सुनहरी रातों का प्रणय रीत,
तुमको ढ़ूँढ़ता है।
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
किस अधर ने किस घड़ी था,
कंठ से उसको सुनाया,
और वह था गीत कैसा,
जो मेरे अंतस में छाया।
गीत तो था मानो ऐसा,
मौन ने हो शब्द पाये,
चैन की दो बूँद मानो,
विरह के क्षण माँग लाये।
श्वास के बिन फिर बूझा,
संगीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
इससे पहले भी था आया,
राग का प्रवाह मुझमे,
और रातें भी बन आयी,
प्रेम का गवाह मुझमे।
ह्रदय तारों में अजब सी,
एक हलचल उठ रही थी,
प्रेम का हर राह मानो,
मुड़ गया तेरी गली में।
मौन पर फिर सिसकियों का,
जीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
नींद में अब भी है जागी,
याद की सारी कहानी,
भूल कर तुमने किया है,
प्यार पर कोई मेहरबानी।
अब भी आँखें ढ़ूँढ़ती है,
दर-ब-दर बस तुमको ही क्यों,
लुट गयी जब जिन्दगी,
मस्ती मेरी,अल्हड़ जवानी।
कुछ नहीं पर जो बचा वो,
प्रीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
है प्रतीक्षारत नयन किस घड़ी,
प्रेयसी निकट आये,
कंठ के बिन स्वर सजाकर,
कैसे कोई गीत गाये।
चूभ रही है हर घड़ी,
दर्पण तुम्हारी इस नयन में,
स्नेह की अग्नि बिना,
है लौ कैसा इस हवन में।
कँपकँपाती होंठों पे वो ओस जैसा,
प्रलयंकारी शीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
आखिरी पल का अकेला,
गीत तुमको ढ़ूँढ़ता है।
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सत्यम शिवम कविता
Thursday, December 8, 2011
रुला के तुमको खुद रो दिया मै
मेरी सौवीं पोस्ट.......
रुला के तुमको खुद रो दिया मै,
गुनाह ये कैसा किया मैने।
गुनाह ये कैसा किया मैने।
बेवजह अश्रु के मोतियों को,
तेरे नैनों में भर दिया मैने।
दर्द देकर दर्द की ही,
इक नदी में बह गया मै।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
क्यों नहीं मै जान पाया,
तुमको ना पहचान पाया,
प्यार को नफरत समझकर,
हर बार तेरा दिल दुखाया।
जानता था है गलत यह,
पर यह गलती क्यों किया मैने?
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
पास तेरे दर्द अपना कह ना पाया,
क्या कहूँ तुम बिन तो इक पल,
रह ना पाया।
तुम चली गयी तो लगा कि दूर मुझसे,
जा रहा है आज खुद मेरा ही साया।
साँस के बिन बस तड़प कर रात काटी,
और दिन के उजालों में भी तुम बिन जिया मै।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
साथ मेरे अब नहीं है कोई साथी,
दूर है खुशियों की सज,धज और बाराती।
राहों में मँजिल से अपने खो गया हूँ,
क्या था मै और आज कैसा हो गया हूँ?
जानता हूँ सामने है प्याले में जहर,
रात है घनघोर अब ना होगा सहर।
पर न जाने प्यास है कैसी ये मेरी,
भर के प्याला जहर को हर बार पिया मैने।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
चाहता हूँ पाना मै ना उपहार कोई,
गैर से भी ना करे ऐसा व्यवहार कोई।
तेरे नैनों में भर दिया मैने।
दर्द देकर दर्द की ही,
इक नदी में बह गया मै।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
क्यों नहीं मै जान पाया,
तुमको ना पहचान पाया,
प्यार को नफरत समझकर,
हर बार तेरा दिल दुखाया।
जानता था है गलत यह,
पर यह गलती क्यों किया मैने?
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
पास तेरे दर्द अपना कह ना पाया,
क्या कहूँ तुम बिन तो इक पल,
रह ना पाया।
तुम चली गयी तो लगा कि दूर मुझसे,
जा रहा है आज खुद मेरा ही साया।
साँस के बिन बस तड़प कर रात काटी,
और दिन के उजालों में भी तुम बिन जिया मै।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
साथ मेरे अब नहीं है कोई साथी,
दूर है खुशियों की सज,धज और बाराती।
राहों में मँजिल से अपने खो गया हूँ,
क्या था मै और आज कैसा हो गया हूँ?
जानता हूँ सामने है प्याले में जहर,
रात है घनघोर अब ना होगा सहर।
पर न जाने प्यास है कैसी ये मेरी,
भर के प्याला जहर को हर बार पिया मैने।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
चाहता हूँ पाना मै ना उपहार कोई,
गैर से भी ना करे ऐसा व्यवहार कोई।
मानता हूँ दिल दुखाया मैने तेरा,
पर नहीं था दर्द देना आवेग मेरा।
हूँ खड़ा बन कर मै तेरा गुनहगार,
हर सजा कबूल है तेरे वास्ते यार।
कह दे तू तो अंत अपना कर दूँ मै,
टूट कर शाखों से दामन भर दूँ मै।
टूटने,जुड़ने में खुद के जख्म को,
खुद ही मरहम भर कर हर बार सिया मैने।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
पर नहीं था दर्द देना आवेग मेरा।
हूँ खड़ा बन कर मै तेरा गुनहगार,
हर सजा कबूल है तेरे वास्ते यार।
कह दे तू तो अंत अपना कर दूँ मै,
टूट कर शाखों से दामन भर दूँ मै।
टूटने,जुड़ने में खुद के जख्म को,
खुद ही मरहम भर कर हर बार सिया मैने।
रुला के तुमको खुद रो दिया मै।
Friday, December 2, 2011
मेरे जन्मदिन के दिन "काव्य संग्रह" का विमोचन........[आशीर्वाद दे]
सर्वप्रथम मै सत्यम शिवम अपने सभी साहित्य प्रेमीयों का अभिनंदन करता हूँ।आज मेरी जिंदगी के दो महत्वपूर्ण दिन है।एक तो आज मेरा "जन्मदिवस" है दूसरा आपसबों के आशीर्वाद से मेरे सम्पादन में प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" का विमोचन।
सब आपसबों के आशीर्वाद और स्नेह से सम्भव हुआ है।हमेशा आप मेरी कविताओं और आलेखों पर अपने विचार रखकर उसे सही मार्गदर्शन देते है।यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है।
आज आप सभी श्रेष्ठजनों से आशीर्वाद की इच्छा है।
"साहित्य प्रेमी संघ" के त्तत्वावधान में प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान".....20 भावप्रधान कवियों की काव्य माधुरियों से सुशोभित.....एक अनोखा काव्य संग्रह...जिसमें आपको हर रस और रंग की 166 कवितायें एक साथ पढ़ने का मौका मिलेगा...और साथ ही इन कवियों से रुबरु होने का भी मौका मिलेगा....यह एक अनोखी उड़ान है साहित्याकाश में...."टूटते सितारों की उड़ान".......[यह काव्य संग्रह अब आपको प्राप्त हो सकती है.....इस काव्य संग्रह की अग्रिम बुकिंग कराने के लिये और अपनी प्रति सुनिश्चित कराने के लिए आज ही हमे मेल से सम्पर्क करे at contact@sahityapremisangh.com या इस नम्बर पर सूचित करे (9934405997)....."अग्रिम बुकिंग कराने पर पुस्तक रिबेटिंग कीमत पर प्राप्त हो सकेगी".........धन्यवाद]
ISBN
(978-81-921666-4-3)
पुस्तक का प्रोमो विडियों आप देख सकते है यहाँ...
फेसबुक पेज at http://www.facebook.com/Tuttesitaronkiudaan
Friday, November 11, 2011
मै कौन हूँ
मै मानव हूँ,या दानव हूँ,
प्रकाश हूँ,या अंधकार हूँ।
कोई संगीत हूँ,या कोई शोर हूँ,
न जाने किसका मै छोर हूँ?
दिन हूँ,या रात हूँ,
शब्द हूँ,या बात हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
भोर की मधुबेला हूँ,शाम की गोधुली वेला हूँ,
दुनिया के भीड़ में भी,
न जाने क्यों,
मै तो बस आज अकेला हूँ।
सूरज की पहली किरण हूँ,
या सूर्यास्त की लालिमा हूँ।
दिन का ऊजाला हूँ,या रात की कालिमा हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
मै फूल हूँ,या शूल हूँ,
मिट्टी हूँ मै या धूल हूँ।
इक बीज हूँ,या वृक्ष हूँ,
सुदूर हूँ या समक्ष हूँ।
मै डाली हूँ,या तना हूँ,
किस रँगरुप में मै सना हूँ।
मै इक फूल हूँ,या पूरा बाग हूँ,
इक हँस हूँ,या मै काग हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
इक धारा हूँ,या नदी हूँ,
सागर हूँ,युग हूँ,मै सदी हूँ।
इक आत्मा हूँ,या परमात्मा हूँ,
सगुण हूँ,या निर्गुण हूँ।
इक ख्वाब हूँ,या सत्य हूँ,
जीवित हूँ मै या मृत हूँ।
मनमीत हूँ,मनचोर हूँ,
अलगाव हूँ,या जोड़ हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
दुर्बल हूँ मै या सर्वशक्तिमान हूँ,
इक सत्य से अनजान हूँ।
मै ज्ञान हूँ,विज्ञान हूँ,
मुर्ख हूँ मै अज्ञान हूँ।
समझदार हूँ या नादान हूँ,
सम्मान हूँ,या अपमान हूँ।
आदि हूँ मै या अंत हूँ,
कब से हूँ मै,जब से हूँ मै।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
मै गगन हूँ,अंतरिक्ष हूँ,
मँजिल हूँ मै ,मै ही लक्ष्य हूँ।
इक तारा हूँ,या चाँद हूँ,
मै एक हूँ,या अनेक हूँ।
नारी हूँ मै या पुरुष हूँ,
ममता हूँ मै,मै ही प्रेम हूँ।
आँख हूँ या आँखों का काजल हूँ,
आँसू की हर बूँद का इक जल हूँ।
इक क्षण हूँ,इक पल हूँ,
निर्बल हूँ,या सबल हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
मै शिशु हूँ,या पिता हूँ,
बच्चा हूँ,या माता हूँ।
जग हूँ मै संसार हूँ,
जीत हूँ या हार हूँ।
सृजन हूँ मै संहार हूँ,
घृणा हूँ या मै प्यार हूँ।
मै भाव हूँ,या अभाव हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
मै प्रश्न हूँ,या हल हूँ,
मै आज हूँ,या कल हूँ।
मै भूत हूँ,या भविष्य हूँ,
अज्ञात हूँ,या दृश्य हूँ।
मै देश हूँ,मै ही वेश हूँ,
माहौल हूँ मै परिवेश हूँ।
जो हूँ मै वही हूँ क्या,
या सब कुछ है जगत में मिथ्या।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
मै तुझमे हूँ,मै खुद में हूँ,
क्यों मै हूँ,तुम क्यों ना हूँ?
इक क्षण में हूँ,इक पल में हूँ,
मै तो अनंत युग और सदियों में हूँ।
ब्रह्मांड हूँ,इक प्राण हूँ,
शांति हूँ,स्नेह हूँ,निर्वाण हूँ।
अनुभव हूँ मै,अनुमान हूँ,
हर जीव की इक पहचान हूँ।
सम्पूर्ण हूँ मै,आत्मज्ञान हूँ,
ईश्वर हूँ मै,मै ही भगवान हूँ।
इस प्रश्न पर आज क्यों मौन हूँ,
न जाने मै कौन हूँ?
मै कौन हूँ,मै कौन हूँ?
Saturday, October 29, 2011
मेरे बाद......
कुछ घड़ी बस स्नेह की बहती नदी में,
ज्वार भावों का उठेगा और गिरेगा,
मेरे पद्चिन्हों पे चल कर तम की नगरी,
सूर्य कोटि रश्मियों से भी लड़ेगा।
आँसू के कुछ धार बहते नैन तल से,
होंठों का स्पर्श कर सिहरन करेंगे,
याद कर के खामियों और खूबियों को,
लोग मुझको देवता,दानव कहेंगे।
याद होगी,बात होगी,मेरी कुछ रचनायें होगी,
पर न जाने उस जहाँ में मौन मै कैसा रहूँगा?
मेरे बाद,मेरे बाद.................।
चाहता था जो मै करना कर सका ना,
वक्त की आँधी से लड़ कर बह सका ना।
मैने ढ़ाला स्वयं को उन्मुक्त कर के,
पर जमाना चाहा जैसा कर सका ना।
कुछ घड़ी हर साँस तुम पर कर न्योछावर,
मैने मन के,तन के तार तुमसे जोड़े,
हर दशा में जो दिशा विपरीत तुमसे,
एक क्षण में साथ उन राहों का छोड़े।
पर न जाने आज तुमसे दूर होकर,
इस जहाँ में मै अकेला कैसा रहूँगा?
मेरे बाद,मेरे बाद....................।
कौन है जो समय पर बदला नहीं है,
कौन है जो मौत से डरता नहीं है,
है स्वरुप भिन्न,भिन्न छटायें कुछ नयी सी,
कौन ठोकर खा के उठकर चलता नहीं है।
आज गर है नाम तेरा,दाम तेरा,
कल तेरे राहों में छायेगा अँधेरा,
लाख चाहे रोकना इंसान खुद को,
मिट्टी का तन,मिट्टी में डाले बसेरा।
पर तुम्हारे कदमों की इक धूल बनकर,
उड़ता,उड़ता बस यहाँ से मै वहाँ तक।
नाम के बिन बस बना बेनाम आशिक,
होकर भी ना होने सा कैसा रहूँगा?
मेरे बाद,मेरे बाद.................।
मेरे परिजन,संग साथी और संगाती,
जन्म के उल्लास से मरघट के साथी,
मेरे पिछे आँसू अपने पोंछते है,
क्यों गया ये दूर ऐसा सोचते है।
मौत की शैय्या बिछी है मै पड़ा हूँ,
आत्मा बन सामने सब के खड़ा हूँ,
देखता हूँ सामने है दृश्य न्यारा,
जिंदगी की दौड़ में कोई है हारा।
पर ज्यों ही हाथों को बढ़ाकर छुना चाहूँ,
स्वप्न से मानो भयंकर जाग जाऊँ,
दूर है अब दूरियों में प्यार सिमटा,
पर तुम्हारे बिन मै मर भी न सकूँगा।
मेरे बाद,मेरे बाद...................।
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सत्यम शिवम कविता
Monday, September 19, 2011
अरसों के बाद घोंसलों में......
बड़े दिनों बाद घर जाना हो रहा है...तो कुछ पंक्तियाँ इस बार के जाने पर आ रही है "बड़े वक्त के बाद फिर शहर में,हुआ है आना मेरा"...कहते है ना कवि किसी भी विषयवस्तु को कुछ अलग तरीके से सोच लेता है...तो देखिये मेरी इस सोच का नतीजा........ये पंक्तियाँ बयाँ हुई कुछ इस अंदाज में....
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।
कैसे बताऊँ था कितना सूना,
तुझ बिन ये जीवन मेरा।
कुछ नहीं बदला यहाँ पर,
रेत भी है,चट्टान भी है,
और दीवारों के कान भी है।
वही कंकड़ है,सड़क है,
रास्ते है अभी भी सूने सूने,
उन रास्तों पे चलते हम तुम,
कई ख्वाबों को थे कभी बुने।
दो कदम बस और मुझको चलना है,
लगता है अब दूर नहीं घर मेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंक्षी ने डाला है बसेरा।
वो नीड़ अब भी है उसी का,
वो जानता है।
मौसम की बेरुख अदाओं को,
पहचानता है।
है याद उसके कल के कही इन घोंसलों में,
बेफिक्र रात के बाद जहाँ होता सवेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।
गुम हो गयी अतीत की सारी कहानी,
मिट गयी है इस पेड़ से मेरी निशानी।
कई बार उल्टा रुख हवा का,
उड़ गये परिंदे,
बारिश की बूँदों में समाये से दरिंदे।
तन भीग जाता,भीग जाता है मेरा मन,
आँखों से बरसे बूँद बन प्रवास मेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।
Thursday, September 15, 2011
इंजीनियर्स की परेशानी (प्रेम डगर)
आज से एक वर्ष पहले मैने "इंजीनियर्स डे" के मौके पर ही लिखा था अपना एक लोकप्रिय काव्य "इंजीनियर्स की परेशानी"....जिसमें बताया गया था इंजीनियर्स की लाइफ में आने वाली परेशानीयों के बारे में...जो इक इंजीनियर कवि बखूबी समझ सकता है....और आज आप सब के समक्ष मै लेकर आया हूँ "इंजीनियर्स की परेशानी (प्रेम डगर)"..जो बताता है कि प्रेम मार्ग में चलते हुये एक इंजीनियर के साथ क्या क्या परेशानीयां आती है और कैसी भावनाओं से रुबरु होता है वो..... |
---|
पहला भाग यहाँ पढ़े....
इंजीनियर्स की परेशानी (प्रेम डगर)
होती थी बरखा,बहार कभी,
पतझड़ की सी सुखार कभी,
मन ही मन की वो बेचैनी,
कहलाती थी जब प्यार कभी।
तब आँखों में आँसू की जगह,
सैलाब उमड़ता था,
मै डूबता था कभी कही,
और कभी उभरता था.............।
नये प्यार सा नया सेमेस्टर,
लूज़ करता रहा मेरा कैरेक्टर,
बी.ई. फिल्म की चार रील की मूवी में,
बन गया मै अब सपोर्टिंग एक्टर।
तब मैने जाना कि,
ये प्यार तो है बस मेरी नादानी।
कहता हूँ मै एक ऐसी कहानी,
इंजीनियर्स की परेशानी,
एक इंजीनियर की जुबानी।
कई बार हुआ था प्यार मुझे,
कुछ बार किया इकरार मगर,
दो कदम चला तब ये जाना,
मुश्किल है बड़ी ये प्रेम डगर।
कभी सोचा बंद लिफाफों में दिल की बातें कह डालूँगा,
मन ही मन में फिर आज तुम्हें कैसे भी मै तो पा लूँगा।
पर याद नहीं वो सावन मुझको,
जो अंदर तक कही भिगो गया,
दिल की बातें दिल में रह गयी,
कर ना पाया मै उसे बयां।
कुछ रात यूँही नींद बिन गुजरी,
कुछ रात अजब हलचल सी थी,
कुछ रात तुम्हारी यादों में,
सौ बरस के जैसी दो पल भी थी।
मै जाग गया जो भोर हुआ,
रात का सपना पल में टूटा,
इक रात प्यार का खेल,खेल,
समझा ये प्यार है बड़ा झूठा।
यूँ व्यर्थ नहीं अब करनी है,
मस्ती से भरी अपनी जवानी,
ये प्यार,मोहब्बत बेमतलब,
बस है इससे हमको तो हानि।
कहता हूँ मै एक ऐसी कहानी,
इंजीनियर्स की परेशानी,
एक इंजीनियर की जुबानी।
"HAPPY ENGINEER'S DAY TO ALL OF U"
"HAPPY ENGINEER'S DAY TO ALL OF U"
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