बड़े दिनों बाद घर जाना हो रहा है...तो कुछ पंक्तियाँ इस बार के जाने पर आ रही है "बड़े वक्त के बाद फिर शहर में,हुआ है आना मेरा"...कहते है ना कवि किसी भी विषयवस्तु को कुछ अलग तरीके से सोच लेता है...तो देखिये मेरी इस सोच का नतीजा........ये पंक्तियाँ बयाँ हुई कुछ इस अंदाज में....
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।
कैसे बताऊँ था कितना सूना,
तुझ बिन ये जीवन मेरा।
कुछ नहीं बदला यहाँ पर,
रेत भी है,चट्टान भी है,
और दीवारों के कान भी है।
वही कंकड़ है,सड़क है,
रास्ते है अभी भी सूने सूने,
उन रास्तों पे चलते हम तुम,
कई ख्वाबों को थे कभी बुने।
दो कदम बस और मुझको चलना है,
लगता है अब दूर नहीं घर मेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंक्षी ने डाला है बसेरा।
वो नीड़ अब भी है उसी का,
वो जानता है।
मौसम की बेरुख अदाओं को,
पहचानता है।
है याद उसके कल के कही इन घोंसलों में,
बेफिक्र रात के बाद जहाँ होता सवेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।
गुम हो गयी अतीत की सारी कहानी,
मिट गयी है इस पेड़ से मेरी निशानी।
कई बार उल्टा रुख हवा का,
उड़ गये परिंदे,
बारिश की बूँदों में समाये से दरिंदे।
तन भीग जाता,भीग जाता है मेरा मन,
आँखों से बरसे बूँद बन प्रवास मेरा।
अरसों के बाद घोंसलों में,
पंछी ने डाला है बसेरा।