Monday, May 21, 2012

एहसास तुम्हारे होने का

तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।

दिल के खाली उस कोने का,
वो दर्द तुम्हारे खोने का।
गुमशुम हूँ,चुप हूँ,खोया हूँ,
एकाकीपन में रोया हूँ,
कभी शाम ढ़ले फिर आओगी,
पलकों पे सपने बोया हूँ।

अब बीत गयी है रात,
नहीं तुम पास,
पहर ये रोने का।

तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।

सूनापन मन में छाया है,
पतझड़ का रुत फिर आया है,
खाली,खाली तुम बिन आँगन,
आँसू ने साथ निभाया है।

कुछ बूँद गिरे,
बन याद तेरे,
ये वक्त है कल में खोने का।

तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।

मन वीणा के हर तार से,
झंकृत होती तेरी आहट,
हर मौन मुखरित हो जाता है,
लहरे जो बुलाती सागर तट।

कुछ कदम बढ़े,
कुछ ठहर गये,
टूटे सपनों को बोने का।

तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।
नभ जो है समाया आँखों में,
तारों से सपने दिखते है,
कोरे पन्नों पे मन व्याकुल,
आकुल अंतर का लिखते है।

तेरी राह तके,
सदियों जागे,
कुछ देर तो हक है सोने का।

तुम चली गयी,
पर गया नहीं,
एहसास तुम्हारे होने का।

दिल के खाली उस कोने का,
वो दर्द तुम्हारे खोने का।

Sunday, April 22, 2012

काव्य संग्रह "मेरे बाद" का लोकार्पण समारोह

आप सभी श्रेष्ठजनों के आशीर्वाद से मेरे प्रथम काव्य संग्रह "मेरे बाद" का लोकार्पण कार्यक्रम 15.04.2012 को समपन्न हुआ।इस अवसर पर माननीय सदर एस.डी.ओ और वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि उपस्थित थे साथ ही शहर के प्रतिष्ठित और गणमान्य व्यक्तियों का जमावड़ा लगा था।विभिन्न अखबारों से आये पत्रकारगणों ने मेरा उत्साहवर्धन किया।
(मंच को संचालित करते प्रो. अरुण कुमार जी)
विमोचनकर्ताओं में सदर एस.डी.ओ राधाकान्त जी,साहित्य शिरोमणी,चम्पारण के गौरव वरिष्ठ साहित्यकार श्री लव शर्मा प्रशांत जी,मुन्शी सिंह कालेज के हिन्दी विभाग के प्रमुख प्रो. डा. अरुण कुमार जी,इतिहास मर्मज्ञ एवं कवि प्रो. डा. राजेश रंजन वर्मा जी,बिहार एवं चम्पारण महोत्सव के प्रणेता एवं रंगकर्मी श्री प्रसाद रत्नेश्वर जिन्हें चीन से प्रमुख विषय पर शोध करने हेतु सम्मानीत किया गया...प्रमुख थे।
(विमोचन करते सदर एस.डी.ओ और वरिष्ठ साहित्यकारगण)
इन सबों ने अपने तरीके से काव्य संग्रह की समीक्षा प्रस्तुत की और इसमें अध्यात्म एवं प्रेम की कविताओं का अद्भूत संयोग बताया।इतनी कम उम्र में ऐसी कृति करने हेतु मुझे शूभकामनाएं दी और विलक्षण कार्य बताया.....सदर एस.डी.ओ ने इस बड़ी उपलब्धि हेतु मुझे बधाईयां दी।वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने मुझे आशीर्वाद दिया और पापा ने सबके सामने मुझे गले से लगा लिया......माँ एवं मेरे छोटे भाई ने भी मेरी खुशी पर मेरा सहयोग दिया। 
(पुस्तक की अध्यात्मिक विवेचना करते प्रो. डा. राजेश रंजन जी)
कार्यक्रम के अगले दिन यानि 16.04.2012 को विभिन्न अखबारों में लोकार्पण समारोह की विस्तृत जानकारी देखने को मिली...जिनमें कुछ प्रमुख अखबारों की कतरन निचे है।
(दैनिक हिन्दूस्तान में कार्यक्रम की जानकारी)
(राष्ट्रिय सहारा में कार्यक्रम की जानकारी)


दैनिक जागरण में प्रकाशित जानकारी का लिंक

साथ ही विभिन्न अन्य अखबारों जैसे "सन्मार्ग,आज और प्रभात खबर" में भी कार्यक्रम की जानकारी प्रकाशित हुयी।


पुस्तक विवरण
काव्य संग्रह
कविता:53
कुल पृष्ठ 160
मूल्य रु:-150

अपने पहले काव्य संग्रह "मेरे बाद" में मैने अपनी 56 काव्य रचनाओं को संग्रहीत किया है।हर कविता भिन्न भिन्न उपादानों से सुसज्जित है और अलग रंग और रस में रंगी हुई है।प्रेम,अध्यात्म,भक्ति,भाव और थोड़ा बहुत विरह भी परिलक्षीत होगा मेरी इन कविताओं में।कहते है जब कोई कलाकार अपनी सृजनात्मकता में अपने ह्रदय की भावनाओं का सम्मिश्रण करता है तब उसकी वह कृति जीवंत हो जाती है।अपने पिता की भावनाओं को समर्पित मेरी कविता "पिता का दुख" इसी सोच का एक सटीक उदाहरण है।आँखों से आँसूओं की सरिता प्रवाहीत होती रही और मै अपनी लेखनी से इक पिता के दुख को पन्नों में उतारता गया।मुझे पूर्णविश्वास है मेरी यह भाव सरिता आपकी भावनाओं को भी अवश्य बहा ले जायेगी।

काव्य संग्रह की अंतिम कविता "प्रलय पुरुष" मेरी भावी कल्पना का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।मेरा यह पात्र "प्रलय पुरुष" "मेरे बाद" की उस सोच का नतीजा है जहाँ कलियुग के अंतिम पहर की गणना शुरु हो चुकी है।मैने इस कविता को कई खण्डों में लिखा है और साथ ही विभिन्न नये पात्रों और प्रतिमानों को गढ़ा है,जिसका पूर्ण स्वरुप शायद आपको मेरी भविष्य के किसी संग्रह में मिले।सृजन की महता तभी है जब प्रलय का आवेग है।हर बार प्रलय के बाद एक नयी सृष्टि का उदय होता है और जो सृष्टि के कल्याणार्थ द्वेष,पाप,ईर्ष्या जैसी आसुरिक भावनाओं से कुंठित होकर प्रलय का तांडव रचता है वही प्रलय पुरुष कहलाता है।यह रचना मेरे लिये कुछ विशेष है।आशा करता हूँ कि इसकी लय और ताल में आपको भी एक क्षण प्रलय राग का धुन सुनायी देगा,वो कंपन महसूस होगी जो सृष्टि के संहार के बाद एक नये धरातल की रचना करेगी।

इस काव्य संग्रह को प्राप्त करने के लिये आज ही हमे मेल से अपना पोस्टल पता भेजे at satyamshivam95@gmail.com 
ISBN
978-81-921666-9-8

कुछ श्रेष्ठ एवं गणमान्य ब्लागरों द्वारा इस पुस्तक की समीक्षा

दर्शन कौर धनोए आंटी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
वंदना गुप्ता जी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
"मेरे बाद"......एक शुरुआत
संगीता स्वरुप आंटी द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
at
पुस्तक परिचय-27 : मेरे बाद

रंजू भाटिया जी के द्वारा मेरे काव्य संग्रह "मेरे बाद" की मनमोहक एवं तर्कसंगत विशलेष्णात्मक समीक्षा
at
मेरे बाद ...सत्यम शिवम् ...पुस्तक समीक्षा ..

सरस दरबारी जी के द्वारा "मेरे बाद" की समीक्षा
समीक्षा 'मेरे बाद'.....सरस दरबारी जी

शास्त्री जी के ब्लाग पर
"पुस्तक समीक्षा-मेरे बाद" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

"मेरे बाद" का फेसबुक पेज
at

आपसबों के आशीर्वाद एवं स्नेह का आकांक्षी हूँ...स्वागतम्।

Friday, February 24, 2012

एक पौधा तुलसी का

मेरे आंगन में मुरझाते हुये तुलसी पौधे को समर्पित......

एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।

प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
सुख के क्षण में प्राण वायु दान बन,
क्लेश में संताप से मरता रहा है।

अपने जड़ में वह छुपाये,
शांति और स्नेह धारा,

तीव्रतम वायु ने छीना,
तरु से जब  पत्र सारा।

करुण पीड़ा भी सहा वो,
वृक्ष वट का बन बड़ा सा,

दे रहा बस नया जीवन,
हरित देव फिर है हारा।

मृत्यु की सीमा पे भी,
वह दौड़,दौड़,

जिंदगी की खातिर लड़ता रहा है।

एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।

प्रार्थना,आराधना करता रहा है।

मँजरी से लद गया था तन सुकोमल,
देव को होता था अर्पित जब तुलसी दल,

वरण जिसका खुद किये थे ईश विष्णु,
तरु वह खोता रहा है निश दिन स्व बल।

कर रहा था खुद में संचित,
पुण्य का प्रकाश हर क्षण,

सू्र्य का अवतार वो ही,
तम से अब डरता रहा है।

एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।

प्रार्थना,आराधना करता रहा है।

तितलियों का क्रीड़ा साथी,
मेरे घर का बुजुर्ग था वो,

छोटे बच्चों का खिलौना,
बूढ़ों का हमदर्द था वो।

उसकी रंगत में है दिखती,
मेरी माँ की बस दुआयें,
अर्घ्य स्नेह का,नेह का,
हर चोट का मेरे उपाय।

जाने से उसके गया है,
वैद्य घर का एक पुराना,

पल में जो हर दर्द मेरा,
हर घड़ी हरता रहा है।

एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।

प्रार्थना,आराधना करता रहा है।

Sunday, February 19, 2012

मेरे दुख तूने साथ निभाया

मेरे दुख तूने साथ निभाया।

तब जब कोई न था अपना,
टूट चुका था हर एक सपना।

घर था पर न थी छत ऊपर,
बारिश से भींगा तन तर,तर।

अन्न नहीं थे,वस्त्र नहीं थे,
आँसू के दो बूँद सही थे।

खारेपन में अपनत्व मिलाकर,
तू गागर में सागर भर लाया।

मेरे दुख तूने साथ निभाया।
साँझ ढ़ली जब बैठ अकेला,
जीवन की अंतिम थी बेला।

बीते कल पर हर्ष मनाता,
सुख जब द्वार न मेरे आता।

कष्ट में बन कर मेरी श्रद्धा,
भक्ति का मार्ग दिखाया।

मेरे दुख तूने साथ निभाया।

सब ने मेरा साथ छोड़ा,
श्वांस बचा था थोड़ा,थोड़ा,
नयन बंद थे,भय था भीतर,
ह्रदय पृष्ठ रह गया था कोरा।

शब्द बना तू हर एकांत का,
छन्द बनी अंतस की पीड़ा।

पन्नों में कह गया तू वो सब,
जो मै कभी ना कह पाया।

मेरे दुख तूने साथ निभाया।

सुख था तो मै जग को जाना,
राग,द्वेष का ताना,बाना,
नहीं रहेगा कल जो क्षण भर,
व्यर्थ है उसको पाना।
छुटे साथी,रिश्ते टूटे,
सुख का साथ जो छुटा।

ज्ञात हुआ तब खुद का मुझको,
तूने मुझे,मुझसे ही मिलाया।

मेरे दुख तूने साथ निभाया।

Tuesday, January 31, 2012

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

तीमिर है काली,भयानक पास आती,
नयनों की ज्योति है जैसे दूर जाती।
थक गया है प्राण और निर्माण सारा,
बोझ से दब सी गयी है सब की छाती।

वह जो मुस्कुरा रहा है देख मुझको,
आँसू भी है मोती जैसे दिल के तह की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

मैने कितने किस्से लोगों से सुने थे,
जिंदगी का नाम जीना ही नहीं है।

मर गया गर कोई खुद के वास्ते तो,
मरना भी बस विष का पीना ही नहीं है।

जिंदगी में देखे है कई मौत मैने,
उसके तन से मेरे मन के रमणिक सुलह की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

वह किरण बन कर मेरे अँधियारी गलियों,
में यहाँ से रोज वहाँ तक आता जाता।

उसके पद्चापों की सुमधुर ध्वनि,
क्या पता क्यों दिल को मेरे आज भाता।

कई घड़ी ऐसा हुआ है,बिन कुछ सोचे,
दूर तक मै उसके पिछे पीछे जाऊँ।

पर अचानक चौंक जाये चौंधियाती आँखें,
चाह कर भी लक्ष्य से जब मिल ना पाऊँ।

काँटों पे चलता रहा हूँ जिंदगी भर,
कोई तो इक राह मिले कल्पित सुमन की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

गूँजती है दस दिशायें,हर तरु यह पूछता है,

मन अनुतरित है तो क्यों है,
क्यूँ नहीं कुछ सुझता है।
आते है मदमास,सावन,
फिर बसंत,फिर पतझड़ आता।

जख्मों पर कुछ नमक का कण,
देह को मेरे जलाता।

हार जाती मेरी चाहत और मेरी अभिलाषाएं,
जीत होगी नींद पर कब?

मेरे भावी,पलछिन सुपन की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

Friday, January 20, 2012

हे देव.....

हे देव! तुम्हारी बाँसुरी में आखिर कैसा जादू है,
मै हरदम सोई रहती हूँ,नशे में खोई रहती हूँ।
जब भी तुम मेरे मन के उपवन में हौले से आते हो,
और अपनी नटखट अदाओं से मुझे दिवाना बनाते हो।

ऐसा लगता है कि मै कोई नहीं हूँ,
मै तो उस यमुना का वो किनारा हूँ,
जहाँ तुम अक्सर बैठकर बाँसुरी बजाते हो।

कई बार पूछना चाही तुमसे,
कई बार देखना चाही तुमको,
पर हर बार मेरी योजनायें विफल हो गयी तुम्हारे सामने।

शायद मै समझ ना सकी,
खुद को बिना दर्पण कैसे देख पाउँगी मै।

जमाना भले ही तुम्हें भगवान कहता हो,
पर मै जानती हूँ तुम वही माखनचोर हो ना,
जो गोकुल में हर ग्वाले के यहाँ से,
माखन चुरा चुरा के खाते हो।

लोग मानते हो तुम्हें महाभारत के समर का,
एकमात्र नायक....
क्योंकि सबकुछ तुम्हारी ही माया का स्वरुप था।
पर मै जानती हूँ तुम वही रणछोड़ हो,
जो युद्ध से भागता भागता छुप जाता है।

मै जानती हूँ देव! तुम मेरे नहीं हो,
तुम तो उस राधा के हो ना,
जिसके साथ तुम अक्सर रास लीला किया करते थे।

जब तुम उस मीरा के नहीं हो सकते,
जो तुम्हारी खातिर विष भी पी लेती है,
तो भला मेरे कैसे हो सकते हो।

मै तो हरदम बस तुम्हारी मायानगरी में व्यस्त रहती हूँ,
पर हे मायावी! मै जानती हूँ कि,
बस तुम ही हो यहाँ और तुम ही हो वहाँ,
जो मुझे जानते हो.......

कि मै अब भी तुमको कितना चाहती हूँ।

हे देव! तुम मेरी आँखों में झाँकना चाहते हो ना,
तो देखो मेरी आँखों में यमुना समायी है।

तुम ही कहो ना कैसे मिलाऊँ नजर,
इस यमुना में तो आज बाढ़ आयी है।
मै जानती हूँ तुम बाल कौतुहल करते करते,
यमुना में भी चले आते हो,
कभी आओ ना मेरी इस यमुना में मेरे माधव!

कोई नहीं है इस यमुना के किनारे बंशी बजाने वाला,
हे बंशीधर! समा जाओ ना मेरी नजरों में,

कि हर ओर बस तुम ही दिखो,बस तुम ही.............।