Tuesday, January 31, 2012

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

तीमिर है काली,भयानक पास आती,
नयनों की ज्योति है जैसे दूर जाती।
थक गया है प्राण और निर्माण सारा,
बोझ से दब सी गयी है सब की छाती।

वह जो मुस्कुरा रहा है देख मुझको,
आँसू भी है मोती जैसे दिल के तह की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

मैने कितने किस्से लोगों से सुने थे,
जिंदगी का नाम जीना ही नहीं है।

मर गया गर कोई खुद के वास्ते तो,
मरना भी बस विष का पीना ही नहीं है।

जिंदगी में देखे है कई मौत मैने,
उसके तन से मेरे मन के रमणिक सुलह की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

वह किरण बन कर मेरे अँधियारी गलियों,
में यहाँ से रोज वहाँ तक आता जाता।

उसके पद्चापों की सुमधुर ध्वनि,
क्या पता क्यों दिल को मेरे आज भाता।

कई घड़ी ऐसा हुआ है,बिन कुछ सोचे,
दूर तक मै उसके पिछे पीछे जाऊँ।

पर अचानक चौंक जाये चौंधियाती आँखें,
चाह कर भी लक्ष्य से जब मिल ना पाऊँ।

काँटों पे चलता रहा हूँ जिंदगी भर,
कोई तो इक राह मिले कल्पित सुमन की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

गूँजती है दस दिशायें,हर तरु यह पूछता है,

मन अनुतरित है तो क्यों है,
क्यूँ नहीं कुछ सुझता है।
आते है मदमास,सावन,
फिर बसंत,फिर पतझड़ आता।

जख्मों पर कुछ नमक का कण,
देह को मेरे जलाता।

हार जाती मेरी चाहत और मेरी अभिलाषाएं,
जीत होगी नींद पर कब?

मेरे भावी,पलछिन सुपन की।

रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।

Friday, January 20, 2012

हे देव.....

हे देव! तुम्हारी बाँसुरी में आखिर कैसा जादू है,
मै हरदम सोई रहती हूँ,नशे में खोई रहती हूँ।
जब भी तुम मेरे मन के उपवन में हौले से आते हो,
और अपनी नटखट अदाओं से मुझे दिवाना बनाते हो।

ऐसा लगता है कि मै कोई नहीं हूँ,
मै तो उस यमुना का वो किनारा हूँ,
जहाँ तुम अक्सर बैठकर बाँसुरी बजाते हो।

कई बार पूछना चाही तुमसे,
कई बार देखना चाही तुमको,
पर हर बार मेरी योजनायें विफल हो गयी तुम्हारे सामने।

शायद मै समझ ना सकी,
खुद को बिना दर्पण कैसे देख पाउँगी मै।

जमाना भले ही तुम्हें भगवान कहता हो,
पर मै जानती हूँ तुम वही माखनचोर हो ना,
जो गोकुल में हर ग्वाले के यहाँ से,
माखन चुरा चुरा के खाते हो।

लोग मानते हो तुम्हें महाभारत के समर का,
एकमात्र नायक....
क्योंकि सबकुछ तुम्हारी ही माया का स्वरुप था।
पर मै जानती हूँ तुम वही रणछोड़ हो,
जो युद्ध से भागता भागता छुप जाता है।

मै जानती हूँ देव! तुम मेरे नहीं हो,
तुम तो उस राधा के हो ना,
जिसके साथ तुम अक्सर रास लीला किया करते थे।

जब तुम उस मीरा के नहीं हो सकते,
जो तुम्हारी खातिर विष भी पी लेती है,
तो भला मेरे कैसे हो सकते हो।

मै तो हरदम बस तुम्हारी मायानगरी में व्यस्त रहती हूँ,
पर हे मायावी! मै जानती हूँ कि,
बस तुम ही हो यहाँ और तुम ही हो वहाँ,
जो मुझे जानते हो.......

कि मै अब भी तुमको कितना चाहती हूँ।

हे देव! तुम मेरी आँखों में झाँकना चाहते हो ना,
तो देखो मेरी आँखों में यमुना समायी है।

तुम ही कहो ना कैसे मिलाऊँ नजर,
इस यमुना में तो आज बाढ़ आयी है।
मै जानती हूँ तुम बाल कौतुहल करते करते,
यमुना में भी चले आते हो,
कभी आओ ना मेरी इस यमुना में मेरे माधव!

कोई नहीं है इस यमुना के किनारे बंशी बजाने वाला,
हे बंशीधर! समा जाओ ना मेरी नजरों में,

कि हर ओर बस तुम ही दिखो,बस तुम ही.............।