रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
तीमिर है काली,भयानक पास आती,
नयनों की ज्योति है जैसे दूर जाती।
थक गया है प्राण और निर्माण सारा,
बोझ से दब सी गयी है सब की छाती।
वह जो मुस्कुरा रहा है देख मुझको,
आँसू भी है मोती जैसे दिल के तह की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
मैने कितने किस्से लोगों से सुने थे,
जिंदगी का नाम जीना ही नहीं है।
मर गया गर कोई खुद के वास्ते तो,
मरना भी बस विष का पीना ही नहीं है।
जिंदगी में देखे है कई मौत मैने,
उसके तन से मेरे मन के रमणिक सुलह की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
वह किरण बन कर मेरे अँधियारी गलियों,
में यहाँ से रोज वहाँ तक आता जाता।
उसके पद्चापों की सुमधुर ध्वनि,
क्या पता क्यों दिल को मेरे आज भाता।
कई घड़ी ऐसा हुआ है,बिन कुछ सोचे,
दूर तक मै उसके पिछे पीछे जाऊँ।
पर अचानक चौंक जाये चौंधियाती आँखें,
चाह कर भी लक्ष्य से जब मिल ना पाऊँ।
काँटों पे चलता रहा हूँ जिंदगी भर,
कोई तो इक राह मिले कल्पित सुमन की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।
गूँजती है दस दिशायें,हर तरु यह पूछता है,
मन अनुतरित है तो क्यों है,
क्यूँ नहीं कुछ सुझता है।
आते है मदमास,सावन,
फिर बसंत,फिर पतझड़ आता।
जख्मों पर कुछ नमक का कण,
देह को मेरे जलाता।
हार जाती मेरी चाहत और मेरी अभिलाषाएं,
जीत होगी नींद पर कब?
मेरे भावी,पलछिन सुपन की।
रात को आभास है स्वर्णिम सुबह की।