अदृश्य तुम मेरे सदृश,
अंतर-नैनों से दिखती जो छवि,
स्वर्ग के द्वार का कोई दृश्य,
समक्ष मेरे तुम हर क्षण,हर पल,
रहते हो क्यों ऐसे अदृश्य?
कई बार हुआ एहसास मुझे,
तुम रहते मेरे पास सदा,
कुछ कमी थी मेरे जीवन में,
थे जो तुम मुझसे जुदा-जुदा!
आवाज दिया अपने मन में,
कई बार बुलाया तुमको,
जो मुझमे मेरे सदृश्य छुपा,
कैसे मिल पाता उनको!
खुशियों के पल में आनंद तू,
दुख में भी हृदय तक जो ले छू,
एकांत में भी मेरे विचार बन,
भीड़ में भी तन्हा सा होता था मन!
सारे अपने, सारे सपने,
सँवरते रहे,टूटते रहे,
तेरे लिए हे प्राण सदृश,
मेरे तन ने क्या-क्या न सहे!
कई बसंत देखे,कई पतझड़ झेले,
बढ़ते रहे तेरी चाह में अकेले!
ढूँढा तुझको हर जगह वहाँ,
लोगों से सुना था जहाँ-जहाँ!
मंदिर भटका, मस्जिद गया,
चर्च,गुरुद्वारा है तेरा घर क्या?
मिला ना मुझे तू कही,
अदृश्य तू है या है नहीं!
कस्तूरी मृग के सदृश,
मेरे हृदय में ही था तू अदृश्य!
मेरे समक्ष पर असहाय थे अक्ष,
दर्शन तेरे ना कर पाये,
गाते रहे,कहते रहे,
कोई चमत्कृत संजीवनी मानो पाये!
श्वासप्राण से जीवन-प्राण दाता,
अदृश्य तू ही है मेरा विधाता,
अब ना कुछ समय गवाना है,
बस कैसे भी तुझे पाना है!
मेरे सदृश तू भाव बन,
आत्मा का तुमको शत-शत नमन!
मेरे मन की अब है लगन,
मैने किया अदृश्य का चयन!