न जाने है कितना अकेला।
इक बहाव में बह गया वो,
आज की शाम,
जाने कब से निरझर है ये शांत,
यूगों यूगों से देखा है जिसने कई सदी।
शाम की आरती का है समय,
तनहाईयों ने कर दिया फिर से अकेला।
गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।
इक रुकी रुकी सी धुँधली तसवीर,
दिखती है मूझको गंगा तीर,
इक नाव अभी भी दिखता है,
किसी की बाट जोहता हुआ बिलकुल अधीर।
इक प्रार्थना का दीप जलता,
गंगा की धार में बहता है,
मेरी भावना के सीप चुनकर,
कुछ अधूरे ख्वाब को गहता है।
मेरा मन मुझसे कहता है,
यादों में जी लेता हूँ फिर,
गुजरे दिनों की हर इक वेला।
गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।
2 comments:
कविता तो कवि की काया है।
यह मन,चरित्र की छाया है।
यह गंगा है,यह यमुना है।
यह ही काबा कैलास तेरा।
दो दिशा इसे 'सत्यम्' अब ही।
इस याचक की बस सोच यही।
यह काव्य नही यह कंचन है।
यह ही तो सच्चा निज धन है।
कर और तप्त इस कंचन को।
जितना कुछ तुमने पाया है।
कविता तो कवि की काया है।
यह मन चरित्र की छाया है।...........
अकेलेपन को व्यक्त करती गहन रचना .
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