लड़ना ही है क्या धार्मिकों का काम।
इंसानियत से दूर बैठा,
मूर्ति में ही है क्या तेरा भगवान।
भगवान ना तेरा है,भगावान ना मेरा है,
बस मन में है राम,रहीम,
इक सोच का तो फेरा है।
फिर छिड़ा है आपस में क्यों धर्मयुद्ध,
बन गया है जो जग में सरेआम।
इक भावना,इक प्रेम सभी में,
इंसानियत है सबकी छवि में,
संवेदना भी एक सा,
और वेदना भी एक सा,
फिर जाने क्यों हमने दे दिया,
किसी को हिन्दु और किसी को मुसलिम का नाम।
घृणा ही है क्या धर्म का नाम,
लड़ना ही है क्या धार्मिकों का काम।
No comments:
Post a Comment