आज अपने अंत की दहलीज पर,
मै आ खड़ा हूँ।
जी रहा सब जानते है,
मै हूँ जिन्दा मानते है।
पर मै तो इस जिन्दगी में,
जीकर भी कई बार मरा हूँ।
आज अपने अंत की दहलीज पर,
मै आ खड़ा हूँ।
अब नहीं मुझको लुभायेगा तुम्हारा स्नेह निश्छल,
अब नहीं मुझको बुलायेंगे कभी वो भूत के पल।
अब तो मेरे साथ होगा,
एक ऐसा निडर मन,
जो देगा स्वरुप को मेरे,
एक अद्भूत,अदृश्य तन।
मर कर भी मौत से मै,
जाने कितनी बार लड़ा हूँ।
आज अपने अंत की दहलीज पर,
मै आ खड़ा हूँ।
है यहाँ वियोगीयों की फौज सारी,
युद्ध एक घमासान है यहाँ भी जारी।
लोग अब भी जलते है एक दूसरे से,
मौत की ये दुनिया है बड़ी ही न्यारी।
दुष्ट दाँतों में अकेला जीभ सा मै,
असहाय होकर बिल्कुल अकेला सा पड़ा हूँ।
आज अपने अंत की दहलीज पर,
मै आ खड़ा हूँ।
14 comments:
मर कर भी मौत से मै,
जाने कितनी बार लड़ा हूँ।
आज अपने अंत की दहलीज पर,
मै आ खड़ा हूँ।
bahut paripakv sundar bhavabhivyakti.badhai satyam ji.
अंत का सोचकर ही जीवन जीना प्रारम्भ करें, वही सुखद।
लोग अब भी जलते है एक दूसरे से,मौत की ये दुनिया है बड़ी ही न्यारी।
दुष्ट दाँतों में अकेला जीभ सा मै,असहाय होकर बिल्कुल अकेला सा पड़ा हूँ।,badi anoothi rachanaa.jeevanke rahate moot ki hakikat bayaan karti hui sambedansheel post.badhaai sweekaren.
बहुत प्यारी रचना-वाह!
कमाल के भाव लिए है रचना की पंक्तियाँ .......
बेहतरीन भावाव्यक्ति।
और ऐसे अंत के बाद ही असली जीवन से सामना होता है... शुभकामनाएँ !
पर मै तो इस जिन्दगी में,जीकर भी कई बार मरा हूँ।
मर कर भी मौत से मै,जाने कितनी बार लड़ा हूँ।
bahut khoobsurat panktiya ! badhai !
जेवण का अंत जब आता है पता नहीं चलता ...
सत्यम जी आपकी इस रचना ने अभिभूत कर दिया और आपकी सोच और आयाम को समझने का मेरा प्रयास मुझे सुकून दे रहा है. आपकी कविता उठान की राह पर है बधाई
मर कर भी मौत से मै,जाने कितनी बार लड़ा हूँ।
आज अपने अंत की दहलीज पर,मै आ खड़ा हूँ।
जीवन संघर्ष को बड़ी बारीकी से व्याख्यायित किया है आपने अपनी इस कविता में....
मर कर भी मौत से मै,
जाने कितनी बार लड़ा हूँ।
क्या बात कही है...
बहुत भावपूर्ण...
गहन अभिव्यक्ति....विचारणीय भाव....
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