Tuesday, May 31, 2011

फिर तुमको हम ढ़ुँढ़ रहे है....

फिर तुमको हम ढ़ुँढ़ रहे है,
आँगन और गलियारों में।
साथ तुम्हारा चाहते फिर है,
जीवन के उजालों में।

संग है कितना प्रिय तुम्हारा,
कैसे ह्रदय बतला पाये,
दूर तुमसे होकर अब तो,
दिल की जान ना निकल जाये।

चाँद में ढ़ुँढ़ू,आसमां में,
या कि ढ़ुँढ़ू सितारों में।

फिर तुमको हम ढ़ुँढ़ रहे है,
आँगन और गलियारों में।

वक्त था वो भी बड़ा निराला,
जब तुम पास में रहते थे,
प्यार के गीत सुनाता था मै,
और तुम अच्छा कहते थे।

महक उठे उन गीतों से यादें,
आई हो तुम फिर बहारों में।

फिर तुमको हम ढ़ुँढ़ रहे है,
आँगन और गलियारों में।

तूमने सीखाया प्यार निभाना,
और मै प्रेमी बन बैठा,
भूल के अपनी सारी रंगत,
तेरे ही रंगों में रंग बैठा।

अब तो जीवन टुकड़ों में है,
या टुकड़े ही टुकड़े है हजारों में।

फिर तुमको हम ढ़ुँढ़ रहे है,
आँगन और गलियारों में।

13 comments:

Roshi said...

sunder chitra ukera hai bhvnao ka

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत अच्छे शब्द दिए हैं एहसासों को.

devendra gautam said...

भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति.
---देवेंद्र गौतम

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर प्रेमगीत।

devendra gautam said...

इस कविता को पढ़कर अपनी ग़ज़ल के दो शेर याद आ गए---

जिसे खोया उसी को पा रहा हूं.
गुज़िश्ता वक़्त को दुहरा रहा हूं.

छुपाये दिल में अपनी तिश्नगी को
समंदर की तरह लहरा रहा हूं.

---देवेंद्र गौतम

Anupama Tripathi said...

वक्त था वो भी बड़ा निराला,जब तुम पास में रहते थे,प्यार के गीत सुनाता था मै,और तुम अच्छा कहते थे।
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ..!!

mridula pradhan said...

bhawbhini.......

vandana gupta said...

बहुत ही रसमयी कविता दिल को छू गयी।

Mani Singh said...

खामिया तो हर इन्सान मे होती है मगर वह तब नजर नही आती जब आप जैसे लोगो का साथ मिल जाता है !

डॉ० डंडा लखनवी said...

प्रभावकारी प्रस्तुति हेतु -बधाई!
==========================
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

***Punam*** said...

bhavpoorn rachna...
dil ko chhootee hui..!!

Anita said...

कभी मिलन कभी जुदाई, यही प्रीत की रीत बनाई ! सुंदर भावपूर्ण कविता के लिये आभार!

Shalini kaushik said...

तूमने सीखाया प्यार निभाना,और मै प्रेमी बन बैठा,भूल के अपनी सारी रंगत,तेरे ही रंगों में रंग बैठा।
bahut sundar abhivyakti satyam ji.badhai.